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भारतीय भक्त्ति आन्दोन में शंकरदेव का योगदान

lehari
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Mahapurukh Srimanta Sankardev.2

भारतीय इतिहास में भक्त्ति काल का महत्वपूर्ण स्थान है। दक्षिण भारत में शुरू हुई भक्त्ति आंदोलन, उत्तर भारत मेँ व्यापक रूप से फैल गया। रमानंनद, कबीर, तुलसी, सूर,वल्लभाचार्या, गुरूनानक, संत नामदेव, चैतन्य महाप्रभु आदि हज़ारों संतों ने भक्त्ति का प्रचार कर अपने भगवान के कीर्तन करने लगें। हिन्दी साहित्य में तो भक्त्ति काल को स्वर्ण युग माना जाता है। पूर्वोत्तर भारत भी संसार को अपने भक्त्ति रस से सींचने में कोई कसर नहीं छोडा।कबीर और रमानंनद के प्रभाव से जो वैष्णव पंत को पल्लवित करने वाला महापुरूष श्रीमंत शंकरदेव था। और उसे आगे बढ़ाने का काम उनके शिष्य माधवदेव एवं अन्य संत जैसे अनन्त कन्दली,दामोदर देव,नारायणदास ठाकुर आता,राम सरस्वती,रत्नाकर कन्दली,श्रीधर कन्दली,भट्टदेव,चन्दसाई,मथुरादास बुढ़ा आदि ने किया था।शंकरदेव असाम में न सिर्फं वैष्णव धर्म का प्रचार किया बल्कि असाम के विभन्न जन-जातियों को एक सूत्र में बांधकर उसे पुनर्जीवित किया।
श्रीमंत शंकर हरि भकतर
जाना येन कल्पतरू।
ताहांत विनाउ नाइ नाइ नाइ
आमार परम गुरू।।
– (नामघोषा,माधवदेव)
शंकरदेव (1449-1568) का जन्म नगाँव जिले के बटद्रवा(बारदोवाँ) गाँव में हुआ था। पिता कुसुंबर भूञाँ और माँ सत्यसंध्या था।जन्म के तुरंत बाद माँ का स्वर्गवास हो गया।दूध पीते बच्चे का देखबाल उसकी दादी खेरसुती ने किया था।
‘ब माने बटद्रवा औ
क माने कुसुंबर गृहे
मातृ नामे सत्यसंध्या
उदरत जन्मिला
आमार श्रीमन्त शंकरदेव हरि ऐ।’

कुसुंबर भूञाँ को कई साल तक संतान नहीं हआ था। भगवान शंकर की आराधना से सुंदर बालक का जन्म हुआ इसीलिए उसका नाम शंकरदेव पड़ा। अपने उम्र के बच्चों की तरह शंकरदेव भी नटखट था।परंतु दादी के समझाने पर उसने अध्ययन में अपना मन लगाया।अपने पिता के अकाल मृत्यु पर उसे अति कम उम्र में पीढी से चली आ रही शिरोमणि भूञाँ का पद संभालना पड़ा। किन्तु पत्नी की अकाल मृत्यु के बाद अपनी बेटी की शादी करके दामाद को शरोमणि पद को सौंपकर तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े।बारह वर्ष तक तीर्थ यात्रा सत्संग में रहें। भागवत आधारित भक्त्ति शुरू की और नाम कीर्तन को अधिक महत्व दिया। विष्णु को अपना आराध्य देव बना लिया। और यहीं से शंकर देव के माध्यम से असाम सें वैष्णव धर्म का पादार्पण हुआ। बसवण्णा की तरह शंकरदेव भी एकेश्वर वाद पर विश्वास रखनेवाले थे। उनका भक्त्ति मत भी ‘एक शरणीया भागवती नाम धर्म’ कहलाया।विष्णु के परम भक्त्त श्री शंकरदेव ने असम राज्य में नव-वैष्णव धर्म का प्रवर्तन किया।

किसी भी समाज में नवीन भक्त्ति मार्ग का प्रचार करना इतने सहज नहीं था।कामरूप की तात्कालिक राजनीतिक अस्थिर परिस्थितियों ने शैन और शाक्त एवं तांत्रिक पूजा उपसनाओं ने शंकरदेव के द्वारा प्रतिपादित नव-वैष्णव धर्म के प्रचार-प्रसार में बाधाएँ उत्पन्न की।उन्हें अनेक तरह का कष्ट उठाना पड़ा।अतः उन्हें अपनी मातृ-भूमि को छोड़कर उड़िसा तक तीर्थ यात्रा में जाना पड़ा।अंत में कोचराज के आश्रय में उनके द्वारा प्रतिपादित वैष्णव भक्त्ति को मान्यता मिली।

विविध जातियों में बटा हुआ असमिया समाज को एक सूत्र में बाँधने का श्रय शंकरदेव को मिलता है।असम के जनता को जो सरल भक्त्ति मार्ग शंकरदेव ने दिखाया उससे वहाँ की जनता में एकता, संप्रीति और समन्वय की भावना उत्पन्न हुई। शंकरदेव ने भक्त्ति मार्ग के प्रचार के लिए लोक भाषा में ही साहित्य का सृजन किया।

1. काव्य
हरिश्चंद्र उपाख्यान,रूक्मिणी हरण काव्य,बलि छलन,अमृत मंथन,अजामिल उपाख्यान

2. भक्त्तितत्व प्रधान
भक्त्ति प्रदीप ,भक्त्ति रत्नाकर,निमि नवसिद्ध संवाद,अनादिपतन

3. अंकिया नाटक
पत्नी प्रसाद,कालिया दमन,केल गोपाल,रूक्मिणी हरण,पारिजात हरण,रामविजय
4. गीत
बरगीत,भटिमा,टोटय,चपय

5. अनुवाद
भागवत,उत्तरकांड रामायण

6. नाम-कीर्तन
कीर्तन,गुणमाला

ऊपर की सभी कृतियों की रचनाओं के द्वारा शंकरदेव ने वैष्णव भक्त्ति का प्रचार किया। उन्होंने सरल-सहज ब्रजावली भाषा का प्रयोग किया जो असमिया के बोलचाल भाषा और ब्रज भाषा का मेल था।
शंकरदेव के समय काल में वैसे देखा जाय तो निर्गुण भक्त्ति धारा का ही महत्व था।शंकरदेव भी कबीर से काफ़ी प्रभावित थे। परंतु उनका मानना था कि निर्गुण ब्रह्मा की उपलब्धि सबके लिए आसान नहीं है।
इसीलिए शंकरदेव अपने अनुयायीयों को पहले सगुण मार्ग में चलकर बाद में निर्गुण ब्रह्मा को प्राप्त करने केलिए कहते है।उनका मानना था कि भक्त्ति मार्ग इतना सरल मार्ग है कि उस पर चलकर साधारण

मानव भी मुक्त्ति प्राप्त कर सकता है।
‘ज्ञान कर्म भकति कहिलों करि भेद।
भकति परम पंथ दिलों परिच्छेद।।’
-भागवत,एकादए स्कंध,1/2/11

सगुण साकार देवकीनन्दन कृष्ण उनका आराध्य था। वे एकमात्र कृष्ण देव को ‘कृष्णास्तु भगवान स्वयं’ की ही उपासना की। वे संपूर्ण रूप से भगवान कृष्ण के शरण में आ गए थे। उनकी भक्त्ति में भी हम कृष्ण के प्रति वात्सल्य एवं सख्य भाव देख सकते है।
‘सर्वधर्मान परित्यज्य मामेक शरणम ब्रज’
-गीता,18/66

शंकरदेव ने ‘कीर्तनघोषा’ में ब्रह्मा के निर्गुण रूप की उपासना पर बल अवश्य दिया,किन्तु उनका मानना है कि धर्म की स्थापना केलिए ही कृष्ण का अवतार हुआ था।
‘खण्डिबाक लागि पृथ्वीर महाभार।
दैवकीर गर्भ आसि भैला अवतार।।’
-कीर्तनघोषा

शंकरदेव द्वारा प्रवर्तित ‘एकशरण नामधर्म’ में जाति के नाम पर भेदभाव नहीं किया था।शंकरदेव के मार्गदर्शन ने पूर्वेत्तर के विभिन्न जातियों को गठन कर ‘भकतिया’ (भक्त्तिमूलक) समाज का निर्माण किया था।
‘किरात कछारि खाचि गारो मिरि
यवन कंक गोवाल।
असम मुलक धोवा ये तुरक
कुवाच म्लेच चांडाल।।
आनो,पापो नर कृष्ण सेवकर
संगत पवित्र हय
भकति लभिया संसार तरीा
बैकुण्ठे सुखे चलाय।।
-भागवत

शंकरदेव ने छुआछूत ,वर्ण-भेद,बहुदेववाद और मूर्तिपूजा का खंड़न किया था।उनका मानना था कि बैकुण्ठ का द्वार हर मनुष्य केलिए खुला है।उनके द्वारा प्रतिपादित एकेश्वरवाद का मूल मंत्र था-
‘एक देव,एक सेव,एक बिने नाइ केव।
नाहि भकतित जाति,नाहि आचार-विचार।।’
शंकरदेव ने सदा कीर्ति और धन को नश्वर माना है। वे अपने बरगीतों में संपत्ति, धन और जीवन की नश्वरता के बारे में कहा है कि-
अथिर धन जन जीवन यौवन
अथिर एहु संसार।
पुत्र परिवार सबहि असार
करबो का हेरि सार।।

बसवण्णा के शरण मंडप की तरह शंकरदेव ने सत्र और नामघर की स्थपना की।यहां मंदिर और मूर्ति के बजाय कीर्तन और भागवत ग्रंथ को रखने की व्यवस्था होती थी।भगवान के गुण नामों की प्रधानता के कारण कीर्तन के लिए ‘नाम’ शब्द का भी प्रचलन हो जाने के कारण कीर्तन घर का पर्यायवाची शब्द ‘नामघर’ बन गया।नामघर में कीर्तन के अतिरिक्त भगवान की लीला का अभिनय,भागवत-आदि ग्रंथों का पाठ,अध्ययन-अध्यापन, सामिजिक-सांगठनिक विचार-विमर्श तथा पर्व-उत्सव आदि होते थे।इस तरह कीर्तन घर में ही देवालय, शिक्षालय, पुस्तकालय, रंगमंच और समाज केलिए सांगठनिक कार्य एवं घर में ही देवालय का काम भी चलता था।सत्र के गुरू ही इन सभी कामों का कार्य मुखिया बनकर करता थे।इस तरह सत्र और नामघरों में न सिर्फ ज्ञान,योग और भक्त्ति का प्रचार होता था बल्कि सामाजिक विकास भी होता था।
शंकरदेव की विशेषता यह है कि जो बात वह कहना चाहते थे उसे कला के माध्यम में कहते थे।उन्होने साहित्य,संगीत,नाटक,नृत्य,वाद्य यंत्र चित्र-कला आदि के द्वारा भक्त्ति का प्रचार किया।इसीलए वह भक्त्ति काल के अन्य गुरूओं से हटकर अपना पहचान बना दिया है।उनके प्रतिभा का स्मरण करते हुए उनके परम शिष्य माधव देव ने कहा है कि-

जयगुरू शंकर सर्व गुणाकर
जाकेरि नाहिके उपाम।

अंततः हम कह सकते है कि शंकरदेव ने पूर्वोत्तर भारत को अपने भक्त्ति रस से सींचकर पावन बना दिया। वे न सिर्फं कृष्ण के परमभक्त्त थे बल्कि एक अच्छे समाज सुधारक,संगीतकार,नाटककार,गीतकार,कलाकार और चित्रकार भी है।प्रो. वासुदेव शरण अगरवालजी ने ही कहा है कि “शंकरदेव वह चमकता
सूरज है जिसके विचारों में असम हज़ारों पंखुड़ियों की कमल की तरह खिल उठा ”

संदर्भ ग्रंथ
 भारतीय भक्ति आन्दोलन और पूर्वोत्तर भारत के भक्ति आन्दोलन में शंकरदेव और माधव देव का योगदान,संपादक-प्रो.दिलीप कुमार मेधि,शब्द-भारती (हिन्दी संसादन केन्द्र),गुवहाटी,असम-2015
 Shankardev Maheshwar Neog,Published by Director,NBT,India-१९६७

डॉ.लक्ष्मी.वी.पी

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