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दास साहित्य को महिलाओं का अवदान

lehari
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yasode6 १२ वीं सदी में वीरशैव क्रान्ति के बाद कर्नाटक में स्त्रियां पहली बार अपने विचारों को व्यक्त करने लगीं | अपने अनुभवों को वचन का रूप देने लगीं| वचन एवं वचन साहित्य का प्रवाह होने लगीं| परंतु वचन काल की समाप्ति के साथ-साथ इन महिलाओं की आवाज़ भी दबने लगी| उस समय राजनैतिक,सामाजिक परिस्थितियों के कारण स्त्रियों पर काफी पाबंदियाँ लगीं| जहां पर मुसलमानों के आक्रमण से स्त्रियों की रक्षा करना एक सवाल बन गया था वहां पर उनकी सृजनशीलता का सिंचन करना नामुमकिन बन गया था| अतः फिर से स्त्रियों को साम्प्रदायिक परिधि में बांधकर रखने लगे| इस भयंकर अंधकार को मिटाते हुए दास क्रान्ति एक किरण के रूप में महिलाओं की सृजनशीलता को फिर से प्रकाशित करते हुए उनमें नई चेतना जगाने लगीं |१३वीं सदी में ही दास साहित्य का सृजन हुआ था| परंतु १८वीं सदी तक पारंपरिक पिंजरे में कैद स्त्रियाँ आज़ाद नहीं हो पायी थीं| एक बड़े अंतराल के बाद पहले पहल हम दास पंथ की कवयित्रियों को १८वीं सदी में मैसूर के राजा चिक्कदेवराय के दरबार में देख सकते है| संचि होन्नम्मा और श्रृंगारम्मा ने राजा चिक्कदेवराय के दरबार को अलंकृत करनेवाली पहली कवयित्रियाँ थीं | परंतु ये कवयित्रियाँ प्रभुनिष्ठ कवयित्रियों के रूप में उभरकर आई| इनके विपरीत भक्ति निष्ठ कवयित्रितयों की परंपरा को दास साहित्य में देखने लगे | ई.पू. १५००-१८९९ तक के समय तक इन भक्ति निष्ठ कवयित्रियों का प्राबल्य देख सकते है| धारवाड़ की रमाबाई जो गलि गलि अव्वा के नाम से प्रसिद्ध है, वह दास साहित्य की स्त्री परंपरा का प्रवर्तक मानी जाती है| इसके अलावा हम हेळवन कट्टे गिरियम्मा,हरप्पना हल्लि भीमव्वा ,रानी लक्ष्मम्मा, शांताबाई ,बोरेबाई लक्ष्मीदेवम्मा,यशोधा यदुगिरियम्मा आदि प्रमुख हैं| इन महिलाओं में कोई भी पढ़ी लिखी नहीं थी| रामायण महाभारत के पठन एवं दासों के कीरतन के श्रवण-गायन के कारण सहज रही उनमें हरि भक्ति एवं श्रद्धा स्थिति थी| इन कवयित्रियों ने समाया समय पर अपने समकालीन समाज में स्त्रियों पारा होनेवाले शोषण एवं अत्याचार का खंडन खुलकर न सही परंतु भक्ति की आड़ मैं व्यक्त किया है|
द्रौपदी को ही अपनी स्त्री-शक्ति का प्रतिबिम्ब माननेवाली हमारी दास परम्परा की कवयित्रियाँ ने उसे क्रांति के प्रतिरूप में चित्रित करती हैं |लक्ष्मी देवम्मा द्रौपदी को पांडवों से भी अधिक शक्तिशाली बनाती है| चीरहरण का बदला खुद द्रौपदी लेना चाहती है, वह अपनी सहेली से कहती है कि –
“संताप भिडू काक्मनुजन नुकि पुरकहाकुवे ”
इस तरह द्रौपदी कौए से भी निकृष्ट दुर्योधन को यमलोक भिजवाती है|लक्ष्मीदेवम्मा द्रौपदी की इस विजय द्वारा पूरे स्त्री कुल के विजय की बिगुल भजाती है|
प्रसिद्ध कवयित्री गिरियम्मा स्त्री सौंदर्य और स्त्री शक्ति के बारे में इस तरह कहती है कि “घट्टी चिप्पिनोलागिन मुत्तु मूडीदा तेरादि” अर्थात बाह्य सौंदर्य से अधिक उसका आंतरिक सौंदर्य है|
दास साहित्य की इन कृतियों में हम न सिर्फ भक्ति रस को देख सकते हैं बल्कि नारी संवेदना को भी देख सकते हैं| दशावतार के गानों में,गोपियों के विलाप में,द्रौपदी की आद्रता में वे स्त्री शोषण का खंडन करती है | अपने पारम्परिक दायरे से निकलकर स्त्री विमोचन एवं मुक्ति की अंतर अनुभव करती है|

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